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शशिभूषण द्विवेदी

जग छूटा जिया बैरागी... आनंद बख्शी कह गया है

(इस लेख का पुनर्प्रकाशन अभिव्यक्ति की उस स्वतंत्रता के समर्थन में है जिस पर किसी तरह की सेंसरशिप का हम विरोध करते हैं. लेख, विचार, पुस्तक, कला का प्रतिरोध लेख, विचार, पुस्तक, कला से ही होना चाहिए. कंट्रोल ऑल्ट डिलीट से नहीं.)

हिंदी में व्यक्ति की मृत्यु के बाद अक्सर लोग मृतक के साथ वह करने लगते हैं, जो मृतक को कभी पसंद नहीं था. प्रभात (रंजन)- तुमने भी वही किया! मुझे पुरस्कार कभी प्रिय नहीं थे. लेकिन हिंदी संसार का अधिकांश युद्धस्तर पर पुरस्कार से प्रभावित और उसके लिए लालायित है. इसलिए अब जब तुम किसी पुरस्कार को पाने के लायक़ नहीं रहे, तब तुम इसे देने के धंधे में आ गए. सही किए गुरू!

वह दुख सुंदर लगता है, जो दोस्त देते हैं. वह कहानी बेहतर होती है, जिसमें कष्ट होता है. वह दुनिया और बदतर हो जाती है, जिसे हम छोड़ देते हैं. 

मेरी स्मृति में तुमने ‘जानकीपुल सम्मान’ क्यों शुरू किया, कुछ और भी कर सकते थे! मैं इस पर सोचते हुए सुबह राजकमल (प्रकाशन) जाने के लिए घर से बाएं निकला, पर दाएं मुड़कर दो बीयर पीकर लौट आया. ऋतु उमस से ग्रस्त थी- जब मैं न जाने कब का सोया हुआ जागा. मुझे जहां जाना था, वहां कभी नहीं गया और जहां नहीं जाना था... 

मैंने एक मैजिक मोमेंट ली-पी- एक बार में. रजनीगंधा में तुलसी मिलाकर कुछ पल हिलाता रहा और शाम होते-होते सेमिनार हॉल 2-3, कमला देवी ब्लॉक, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पहुंच गया. मुझे वैसा ही लग रहा था, जैसा बहुत ज़ोर से पेशाब लगी होने पर पॉश कॉलोनियों से गुज़रते हुए लगता है. ये इलाक़े मेरे नहीं हैं भाई, कुत्तों के हैं.  

मैंने पाया कि तुम उद्धारक, महंत, महामानव होने की इच्छा-आकांक्षा से भर उठे हो. मैं सबको देख रहा था, पर कोई मुझे नहीं... मुझे 2011 के 'कथाक्रम' की याद आई. मैं अनिल (यादव) और हरे प्रकाश (उपाध्याय) को ढूंढ़ने लगा. मैं इन दोनों के बीच में बैठना चाहता था, पर विमल कुमार ने वहां अपना झोला रख दिया. हरे प्रकाश कहीं था नहीं! अनिल को मैं पहचान नहीं पाया! तुमने काफ़ी रंगारंग महफ़िल सजा रखी थी. इन महफ़िलों में आने वाली स्त्रियों पर मुझे ज्ञानरंजन की कहानी ‘घंटा’ याद आती है.

बहरहाल, दिव्या को बधाई! वह मनीषा और तुमसे तो ठीक ही कहानियां लिखती है. लेकिन आभार की अदा कुछ ज़्यादा ही नज़र आई. आभार पर आभार देते रहो, पुरस्कार पर पुरस्कार लेते रहो. बाक़ी दुनिया में और रखा क्या है! मैं जानता हूं कि निर्णायकों को निष्प्रभ करते हुए यह पुरस्कार तुमने ही दिया है, क्योंकि मनीषा ने तो उसे पढ़ा भी नहीं है और प्रियदर्शन के पढ़ने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह सब कुछ पढ़ते और सब कुछ पर लिखते हुए सब व्यंजनों में आलू की नाईं पड़े रहते हैं. लेकिन एक बात बताओ तुम्हें ही नहीं सारे हिंदी संसार को मेरे कुछ विचार तो साफ़ तौर पर पता रहे हैं, यह जानते हुए भी तुमने मेरे नाम पर दिए जा रहे पुरस्कार की ज्यूरी में मनीषा सरीखी सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी और अभी भी कथा-कहन सीख रही महिला को क्यों रखा? वह कल मंच से भी केवल अपने ऊपर बोलती रही, जैसे दो लेखकों पर केंद्रित आयोजन में नहीं ‘संगत’ में बैठी हो, यह कहती हुई कि लिव-इन रिलेशन में रहना जंगल की तरफ़ लौटना है... 

श्री अशोक वाजपेयी ने जोश मलीहाबादी के पास जाने से पहले अंतत: मेरी दो कहानियां पढ़ लीं! मैं कृतकृत्य हुआ! वह अब न पढ़ते तो कभी न पढ़ पाते. इसके लिए तुम्हारा शुक्रिया! वैसे मैंने ज़्यादा कहानियां लिखी ही नहीं. दो ही संग्रह हैं. एक वाणी प्रकाशन ने दोबारा छाप दिया, पता नहीं कॉपीराइट मेरी पत्नी नीलम के नाम पर है या नहीं. यह संग्रह बाहर बिक रहा था, पर देखने की इच्छा नहीं हुई. अपना ही काम कौन देखे... पर ये बताओ कि तुम लोगों ने नीलम की इतनी अनदेखी क्यों की? वह एक असहाय, असमर्थ और ग़रीब लेखक की पत्नी है सिर्फ़ इसलिए? तुम यह काम रवींद्र कालिया के नाम पर कर सकते थे क्या या मनोहर श्याम जोशी के नाम पर? तुम्हारी इच्छाएं, क्षमताएं और सीमाएं जानता हूं प्रभात... मगर ममता कालिया ने फिर से बहुत निराश किया. वह एक बार सार्वजनिक रूप से पहले भी मेरे साथ ऐसा कर चुकी हैं. तुम्हें याद है? 

साल 2018—मेरे दूसरे और अंतिम कहानी-संग्रह पर एक कार्यक्रम था. मैं इस आयोजन के केंद्र में था. मैंने इससे पूर्व सिर्फ़ शराब के नशे में ही ख़ुद को केंद्र में रखा था. मैं केंद्र में था, लेकिन बाएं से एकदम किनारे बैठा हुआ था—रोज़-ब-रोज़ क्षीण हो रही देह पर हरी क़मीज़ पहने हुए. मैं सरलता से देखने में नहीं आता था. एक घंटे के उस आयोजन में मैं एक मिनट से भी कम बोला था. मेरे बग़ल में ममता कालिया थीं, जिन्होंने मेरी कहानियों की ‘नब्ज़’ पकड़ी. उन्होंने कहा कि देखिए आप जैसे लेखक फ़ेसबुक पर नहीं हैं! इस पर दाएं से एकदम किनारे बैठे तुमने प्रभात रंजन तुमने कहा कि अरे ये फ़ेसबुक पर ख़ूब सक्रिय हैं. इस पर ममता कालिया ने कहा कि तब मेरे मित्र नहीं होंगे! मैं इस पर बस मुस्कुरा भर दिया. ममता कालिया के बग़ल में बैठे मैनेजर पांडेय ने अपनी हरकतों से उस दिन मेरी ज़िंदगी की एक ज़रूरी शाम को नरक कर दिया, लेकिन मैं सुपाड़ी चुभलाते हुए बस मंद-मंद मुस्कुराता ही रहा. मैं जानता हूं कि मेरी मुस्कान सुंदर है, लेकिन मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था- भविष्य की रचना के लिए बेचैन, वर्तमान में बाएं से एकदम किनारे बैठकर!

मैनेजर पांडेय के बग़ल में बैठे प्रियदर्शन ने मेरे दूसरे कहानी-संग्रह की पहली समीक्षा लिखी थी, लिहाज़ा वह एकदम तैयार थे. लेकिन मेरे लिए तैयार और अधकचरे सब सम थे, इसलिए मैं कान कम दे रहा था और दिमाग़ को कहीं और लगाए हुए था. मेरे भीतर ही मेरी कहानियों के बारे में कोई बराबर बोलता रहता था; इसलिए बाहर क्या बोला जा रहा है, वह मेरे लिए बहुत ज़्यादा मायने नहीं रखता था. इस दरमियान ही तुमने प्रभात रंजन तुमने लगभग उपहास के स्वर में यह तथ्योद्घाटन किया कि मैंने तुम्हें संपर्क करके यह जानना चाहा कि जब कोई इंटरव्यू ले तो उसमें बोलना क्या होता है! तुमने कहा कि तुम यह जानकर सकपका गए कि ऐसा भी कोई हमारी पीढ़ी का लेखक हो सकता है जिसको मंचों पर बैठकर बोलने की अदा न आती हो, जिसको यह न पता हो कि किस तरह के कपड़े पहनकर कहां पर बैठना चाहिए! 

इसके बाद राजकमल प्रकाशन के लिए वर्तिका को दिए गए इंटरव्यू के बाद मैंने जाना कि तुम उस रोज़ ठीक कह रहे थे; लेकिन वह मेरे बारे में कम था, तुम्हारे बारे में ज़्यादा था.

लेकिन नीलम को तुम लोग ख़बर करते, उसे बुलाते तो उसे अच्छा लगता. उसे लगता कि मैं भी कुछ था! ऐसे ही थोड़ी सब जगह मेरी इतनी बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगा रखी थीं तुमने. काफ़ी ख़र्च किया तुमने अपनी जेब से. मेरे मरने के बाद जब जन-जीवन सामान्य हुआ था, एक छोटी-सी ही सही शोकसभा भी करवा देते जो आज तक कहीं नहीं हुई : न सुल्तानपुर में, न रुद्रपुर में, न बरेली, न दिल्ली में, न नोएडा में, न साहिबाबाद में... एक मिनट का मौन तक नहीं! कहीं कुछ नहीं! मेरे मरने पर इतने लोगों ने संस्मरणात्मक लेख लिखे, उन्हें एक जगह जमा करने का सिर्फ़ ख़याल ही आया राम जनम पाठक को; तुम्हें तो वह भी नहीं. इसमें तो कुछ ख़र्च भी नहीं होता, सिवाय समय के... (सत्यानंद) निरुपम उसे छाप देते. लेकिन समय ही तो नहीं है—आप लोगों के पास, मेरे पास भी नहीं था. 

यह सब यहां इसलिए कह गया, क्योंकि जानता हूं : तुम मुझे मानते थे और तुम्हें बाल बराबर फ़र्क़ नहीं पड़ता. तुमने रूढ़ और रुग्ण हो चुके फ़ेसबुक पर दर्जनों वीडियो जारी करने के बाद कहा: ‘‘यार जहां भी हो वहीं से सब देखना और अगर कोई कमी रह जाए तो हमेशा की तरह माफ़ कर देना.’’ 

जहां था, वहीं से देखा, माफ़ कर दिया... जाओ...

डिस्क्लेमर : यह लिखाई वास्तविक रूप से शशिभूषण द्विवेदी की नहीं है. लेकिन अगर आज वह जीवित होते, तब ‘जानकीपुल सम्मान’ के बारे में उनका बयान कुछ इस प्रकार ही होता.

पुनश्च: यहां प्रस्तुत इस रपट के प्रारंभिक पाठकों-प्रशंसकों ने इस बात की आलोचना करते हुए इसकी वजह जाननी चाही है कि इसमें से ज्ञानरंजन की कहानी ‘घंटा’ से उद्धृत अंश को हटाया क्यों गया, अगर हटाया गया तब लगाया ही क्यों गया! यह प्रश्न बिल्कुल वाजिब है. इस पर कहना यह है कि यहां ज्ञानरंजन की 60 बरस से भी ज़्यादा पुरानी कहानी ‘घंटा’ से एक अंश उद्धृत करने का उद्देश्य महज़ इतना ही था कि इसके आलोक में आस्वादक आधुनिक हिंदी गद्य में स्त्री-दृष्टि की समस्याग्रस्तता को समझ सकें जो ज्ञानरंजन आदि से होते हुए शशिभूषण द्विवेदी और इस लिखाई के वास्तविक लेखक तक जारी है... लेकिन हिंदी में पढ़ने की संस्कृति इतनी ज़्यादा विपन्न हुई है कि सब कुछ को उसके मूल संदर्भ से काटकर पढ़ने का चलन गति पा गया है. इस प्रकार ही दिव्या विजय के मैसेज यहां देने और बाद में हटा देने की वजह भी कुछ साथियों ने जाननी चाही है. इस चैट को यहां देने का मक़सद महज़ इतना ही है कि आप हिंदी में प्रवेश पाने के उनके बिल्कुल प्रारंभिक संघर्ष को देख सकें.

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