हरिशंकर परसाई का बहुत लोकप्रिय कथन है- मूर्खता का आत्मविश्वास सबसे प्रचंड होता है. यह अलग बात है कि कोई भी खुद को मूर्ख कहलाना पसंद नहीं करता. गए हफ्ते मूर्खता का घोड़ा तगड़क-तगड़क दौड़ रहा था. कंगना रनौत हों या असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा, इनके अंदर हर वो लक्षण है जो किसी नारसिसिस्ट या आत्ममुग्ध व्यक्ति के अंदर होते हैं. ऐसे लोगों को लगता है कि नीले आसमान के नीचे, अखिल ब्रह्मांड की सभी समस्याओं का हल उनके पास है.
खैर बुद्धिमान कितना भी गाल बजाएं, सच तो यही है कि दुनिया मूर्खों के दम पर चल रही है. परसाईजी की बात ही गोस्वामी तुलसीदास ने सदियों पहले अपने गहन शोध के आधार पर कही थी- 'सबसे भले विमूढ़, जिनहिं न व्यापहिं जगत गति.'
यानी वो मूर्ख भले हैं जिन्हें दुनिया की गति से कोई फर्क नहीं पड़ता. मूर्खों का अस्तित्व आदिकाल से है. इस परंपरा में कालिदास सबसे शुरुआती लैंडमार्क की तरह उपस्थित हैं. दुनिया के अनेक बुद्धिजीवियों ने भी अलग-अलग तरीके से उसी भाव को व्यक्त किया है. सुकरात कहते हैं कि मैं केवल एक ही बात जानता हूं, कि मैं नहीं जानता. मैं अपने को अज्ञानी ही मानता हूं. शेक्सपियर 'ऐज़ यू लाइक इट' नाटक में इसी बात को अलग तरीके से कहते हैं. "मूर्ख स्वयं को विवेकवान समझता है और विवेकवान स्वयं को मूर्ख. विवेकी और मूर्ख में बस यही भेद है."
मूर्खता की इसी अद्वितीय परंपरा पर इस हफ्ते की टिप्पणी देखिए.
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