इन दिनों अर्जित अनपढ़ता का अखंड अमृतकाल चल रहा है. विदेश नीति का विक्रम हिंदुत्व के बेताल को पीठ पर लादे विश्वगुरु की मरीचिका का पीछा कर रहा है. अखंड भारत का ब्लू प्रिंट कहां है कोई नहीं जानता, मगर सार्क देशों का सपना बांग्लादेश जैसी अधकचरी क्रांतियों की मौत मर रहा है.
शेख़ मुजीब का बुत बांग्लादेश में धराशायी होता है लेकिन हिंदुत्व ख़तरे में है का कोलाहल भारत में मचता है. लेफ्ट से लेकर राइट तक के ‘मीडिया मॉन्क’ सवाल पूछते हैं- जो बेहुरमती बंगबंधु की प्रतिमा के साथ हो रही है वैसी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ हो तो?
इस 'तो' का जवाब तो मेरे नजदीक फ़िलहाल यही है कि “अगर फूफी के मूछें होतीं तो मैं उन्हें फूफा कहता”. लाइटर वेन में ही सही मगर सच्चाई सौ फीसदी यही है.
बंगबंधु का ख़िताब शेख़ मुजीब ने अपने जीते जी एक्वायर कर लिया था, महात्मा को हम पहले से बापू कहते थे और शहादत के बाद उन्हें बाकायदा राष्ट्रपिता कहने लगे. हालांकि संयोग देखिए कि राष्ट्रपिता का खिताब उन्हें एक बंगाली ने ही दिया था. सुभाष चंद्र बोस जिनसे महात्मा के सियासी मतभेद जगजाहिर थे.
बहरहाल, हम क्यों भूल जाते हैं कि विजयीमुद्रा में आदमकद से ऊंचे बुत अधिनायकों के होते हैं, महात्माओं के नहीं. ढाका ने शेख़ मुजीब के जिस बुत को ढहाया है वो उनके महानायकत्व से ज्यादा अधिनायकत्व का प्रतीक था.
शेख़ मुजीब की ह्त्या/शहादत को 50 साल भी पूरे नहीं हुए कि अचानक उनकी सियासी विरासत सवालों के घेरे में है. ये वही विरासत है जिसे उनकी बेटी शेख़ हसीना आगे बढ़ाने का दावा कर रही थीं. अब उनके बांग्लादेश से भागने और वहां सलाहकार सरकार बनने के बाद ढाका में तानाशाही के अंत की बात हो रही है.
यही वक्त है जब शेख़ मुजीब की विरासत और उनके अतीत को री-विजिट किया जाए. उसका मूल्यांकन किया जाए, ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रूरत काम आए.
प्रधानमंत्री मोदी से शेख़ हसीना की मित्रता के चलते सो-कॉल्ड राष्ट्रवादी मीडिया और उसके धर्म ध्वजा वाहक यूं विधवा विलाप कर रहे हैं जैसे ढाका में पहली बार तख़्ता पलट हुआ हो, जैसे बांग्लादेश में हिंदुओं पर कोई अज़ाब फट पड़ा हो.
फ़िलहाल बड़ा सवाल फिर शेख़ मुजीब की सियासी विरासत और सांप्रदायिक अतीत ही है. पाकिस्तान के दो टुकड़े कर देने का अहसास इतना खुशनुमा है कि हम इतिहास-भूगोल के सच का सामना करना ही नहीं चाहते. जबकि ये भौगोलिक दूरी ही थी जिसने ईस्ट पाकिस्तान को बांग्लादेश बनाने में सबसे अहम भूमिका अदा की.
बांग्लादेश बनने से पहले और बंटवारे के दौरान हुए सांप्रदायिक दंगों में शेख़ मुजीब की भूमिका हमेशा संदिग्ध मानी गई. जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के ऐलान के बाद बंगाल में जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, जिनके लिए प्रधानमंत्री हुसैन सुहरावर्दी को जिम्मेदार माना जाता है उनके पॉलिटिकल एडवाइजर या कहें तो पीए शेख़ मुजीब ही हुआ करते थे.
बांग्ला राष्ट्रवाद की सियासत उन्होंने तब शुरू की जब पंजाबी-सिंधी दबदबे वाले पाकिस्तान में बंगाली दोयम दर्ज़े के नागरिक ट्रीट किए जाने लगे. ईस्ट पाकिस्तान की 162 में से 160 सीटें जीतकर मुजीब प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे. मगर सिंधी सियासतदां भुट्टो ने पंजाबी जनरल याहिया ख़ान संग मिलकर ऐसी बिसात बिछायी कि मुजीब मुंह ताकते रह गए.
विडंबना ये कि शेख़ मुजीब ने जिस लोकतंत्र का हवाला देकर बांग्लादेश को पाकिस्तान के चंगुल से छुड़ाया, उसे अपनी ही ऑटोक्रेसी की मुट्ठी में दबोच लिया. 1971 से 75 तक के कुल 4 साल के कार्यकाल में वो पहले प्रधानमंत्री फिर राष्ट्रपति बन बैठे. देश में बहुदलीय व्यववस्था का गला घोंटा और वन पार्टी सिस्टम लागू कर दिया. यानि अवामी लीग का हर महकमे पर कब्ज़ा और पूरे देश पर शेख़ मुजीब के ख़ानदान का. ख़राब आर्थिक हालात के मद्देनज़र लाइसेंस-परमिट राज था लेकिन मुजीब परिवार पर कोई बंदिश नहीं थी. शेख़ पार्टी कारकुनों को शादी ब्याह में शाहखर्ची पर लगाम लगाने की सलाह देते थे और उनके बेटे ने अपनी शादी में जवाहरात जड़ा क्राउन पहना. टीवी रखना तब तक महंगा था, लेकिन बताते हैं कि इसका प्रसारण नेशनल चैनल पर हुआ.
ऐसे में मुजीब के ख़िलाफ़ असंतोष शुरू से ही पकने लगा था, मगर आम अवाम उनके आभामंडल से चमत्कृत थी. शेख़ मुजीब का तख्त़ा पलट क्यों और कैसे हुआ इस पर आगे बात करते हैं मगर उनके सियासी व्यक्तित्व के दो अमानवीय पहलू देखिए- जिनका नतीजा बेहद दर्दनाक रहा.
जंग में औरतें यूं भी माल ए ग़नीमत हो जाती है, बाग्लादेश में ऑपरेशन सर्चलाइट के पहले से बंगाली औरतों पर जो जुल्म ढहाया जा रहा था वो बांग्लादेश बनने के बाद अब ख़ुली किताब है. पाकिस्तानी जुल्म की शिकार बहुत सी महिलाएं/लड़कियां गर्भवती हो गईं. शेख़ मुजीब ने इन अजन्मे बच्चों को ‘बैड ब्लड’ यानि गंदा ख़ून बताकर ‘डिसओन’ कर दिया. जिनका गर्भपात हो सका उनका हुआ, जहां जान का ख़तरा था, वो बच्चे पैदा हुए. मगर उन्हें मदर टेरेसा की मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी जैसी संस्थाओं ने पाला और बाद में देश-विदेश में गोद दे दिया गया.
ये बांग्लादेश की पैदाइश का सबसे रिसता ज़ख़्म है जिस पर बहुत कम लिखा पढ़ा गया. आप इंटरनेट पर सर्च करें तो ऐसी कहानियां मिलेंगी जब बड़े होकर ये बच्चे अपनी नैनियों से मिलने लौटे. अपनी मां के बारे में पता लगाना चाहा, जड़ों की तलाश करनी चाही लेकिन ये हो न सका. नन्स प्राइवेसी के कान्ट्रैक्ट से रिलीजियसली बंधी थीं, इसलिए मजबूर थीं. बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम पर फिल्में और डॉक्यूमेंट्रीज़ ख़ूब हैं, लेकिन इन परित्यक्त संतानों पर सेल्युलायड पर भी सन्नाटा है.
दूसरी ओर है बंटवारे के बाद यूपी बिहार से गए शरणार्थियों की बदहाली, जो आज भी रिफ्यूज़ी कैंपों में ग़लाज़त की जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं. ये वो उर्दू भाषी थे जिन्हें पाकिस्तान का सुनहरा ख्वाब और बहुसंख्यक होने का सुरक्षा बोध बांग्लादेश ले गया. मगर ये लोग न ‘बंगाल’ के रहे न ‘घाटी’. बंगालियों में पूर्वी बंगाल के ढाकाई लोग ‘बांगाल’ कहे जाते हैं और ‘घाटी’ पश्चिम बंगाल वाले कलकतिया.
इन उर्दू भाषी नॉन बंगालियों पर रजाकार यानि पाकिस्तान समर्थक होने का ठप्पा अलग से चस्पा हो गया. बांग्लादेश बनने के बाद जो भाग सकते थे वो नेपाल और खाड़ी देशों के रास्ते भाग कर कराची पहुंचे- जो अय्यूब खान के हवाई जहाज का इंतजार करते रहे वो इन झुग्गियों से बदतर कैंपो में आज भी सड़ रहे हैं.
आइए अब शेख़ मुजीब के अंत और तख्तापलट की बात कर लेते हैं. शेख़ मुजीब ने सत्ता संभालने के बाद एक निजी किस्म की फौज बनाई. नाम था जातीय रक्षा वाहिनी. इसके दो काम थे मुजीब ख़ानदान को सुरक्षा और दुश्मनों का सफ़ाया. इस फ़ौज में ज्य़ादातर मुक्तिवाहिनी के लोग थे जिन्हें आधी-अधूरी ट्रेनिंग के बाद हथियार थमा दिए गए थे. मुजीब की पहली कोशिश मुक्ति योद्धाओं को फ़ौज़ में शामिल कराने की थी, मगर फौज ने इससे इनकार कर दिया.
भारतीय उपमहाद्वीप में फौज का फॉर्मेट अंग्रेजों का बनाया था, जिसमें पेशेवर जवानों के अलावा किसी का स्वागत नहीं था. मुजीब ने तब रक्षा वाहिनी का रास्ता निकाला जो पुलिस और सेना के बीच की लेयर थी. मगर ये थी कर्नल गद्दाफी और सद्दाम हुसैन के सुरक्षा गार्ड्स की बटालियन जैसी ही. हद तो ये कि इसका बजट सेना के खर्च में 15 फीसदी की कटौती कर बनाया गया.
ज़ाहिर है मुजीब के आभा मंडल का आतंक अवाम में था, आवामी लीग में था. फौजियों का असंतोष फट पड़ा, ये और बात है कि इस तख्ता पलट में अमेरिका और पाकिस्तान का भी बड़ा रोल था. फौजियों की एक टीम ने 15 अगस्त, 1975 को तड़के तीसरे-चौथे पहर धावा बोला और शेख़ साहब का परिवार समेत सफाया कर दिया. बच गयीं शेख़ हसीना और उनकी बहन रेहाना जो उस वक्त विदेश में थीं. दोनों बहने एक बार फिर बांग्लादेश से बाहर शरण की तलाश में हैं.
खैर, ये ट्रैजिक क्रोनोलॉजी है बांग्लादेश की, जिसमें 53 साल के भीतर तीन-तीन सैन्य तख्ता-पलट शामिल हैं. लेकिन इसमें किसी भी मुल्क़ और सरकार के लिए ‘टेक-अवे’ ये है कि सत्ता को समावेशी होना ही चाहिए. पावर में आने के बाद अपना-पराया करना और सबका साथ-सबका विकास के नारे का महज जुमला रह जाना विद्वेष के बीज गहरे बोता है. फिर तो फैज़ ही आइना दिखाते हैं.
जब अर्जे ए ख़ुदा के काबे से, सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले सफ़ा मरदूदे हरम, मसनद पर बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे- सब तख़्त गिराए जाएंगे
उट्ठेगा अनल हक का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो
औ राज करेगी ख़ल्क़ ए ख़ुदा.......हम देखेंगे....हम देखेंगे.
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