सुबह के 6.30 बजे, रंजय कुमार अपने गांव गौरा डावर में 12 वर्षीय नीतू कुमारी के दरवाजे पर दस्तक देते हैं. वे उसे पास के प्राथमिक विद्यालय में ट्यूशन के लिए तैयार होने के लिए कहते हैं. जब तक नीतू जाने के लिए तैयार होती हैं, तब तक रंजय अपने बच्चों को इकट्ठा करने के लिए इलाके के कई अन्य घरों का दौरा कर चुके हैं.
पंद्रह मिनट बाद 12 बच्चे हाथ में किताबें और स्टेशनरी लिए एकत्रित हो गए हैं. रंजय उन्हें एक कमरे के स्कूल में ले जाते हैं जहां उनसे अगले एक घंटे तक पाठन और लेखन कराया जाता है. कक्षा पूरी हो जाने पर बच्चे नाश्ते के लिए घर चले जाते हैं और फिर अगली कक्षा के लिए स्कूल लौट आते हैं.
बिहार के गया के इमामगंज ब्लॉक में, पकरी गुरिया पंचायत में स्थित गौरा डावर के 30 वर्षीय टोला सेवक या ग्राम स्वयंसेवक रंजय के लिए यह रोज़ का काम है. वे भोक्ता समुदाय से आते हैं, जो एक अस्पृश्यता की कुरीति का शिकार अनुसूचित समूह है. उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी घर-घर जाकर माता-पिता से अपने बच्चों को स्कूल भेजने का आग्रह करना है.
वह फटाफट कहते हैं, "मैं उनसे अनुरोध करता हूं कि वे अपने बच्चों का नामांकन कराएं, सुनिश्चित करें कि वे बिना चूके कक्षाओं में उपस्थित हों, बच्चों को उनकी शिक्षा में मदद करें, महिलाओं को बुनियादी साक्षरता प्रदान करें और उनके बीच सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी योजनाओं के बारे में जागरूकता पैदा करें.”
बिहार में अनुसूचित समुदायों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. भारत में अनुसूचित जातियों में से, ये वो समुदाय हैं जिनमें सबसे कम साक्षरता की दर पाई जाती है. इनमें से लगभग 92.5 प्रतिशत खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं, 96.3 प्रतिशत भूमिहीन हैं.
इनमें दक्षिणी बिहार में मांझी और उत्तरी बिहार में सदा समुदायों की स्थिति तो और भी भयावह है. भुइया जनजाति की शाखाओं के तौर पर वे महादलित हैं, जिनका सबसे ज़्यादा दमन हुआ है, जिन्हें मुसहर या चूहे खाने वाला भी कहा जाता है. उन्हें अछूत भी माना जाता है, वे छोटे-मोटे काम में लगे रहते हैं जहां पर उन्नति की कोई संभावना नहीं होती. 2007 में महादलित आयोग की अंतरिम रिपोर्ट के अनुसार गंभीर रूप से वंचित और सामाजिक रूप से बहिष्कृत वर्ग के रूप में बिहार में उनकी आबादी लगभग 22 लाख है - हालांकि वास्तविक आंकड़ा कहीं ज़्यादा होने की संभावना है.
मुसहरों ने हमेशा जमींदारों के लिए खेतिहर मजदूर के रूप में काम किया है. वे बंधुआ मजदूर हुआ करते थे, उनका वजूद जमींदारों द्वारा दी गई अनिर्णीत उदारता पर निर्भर था. अस्पृश्यता, भूमिहीनता, अशिक्षा और कुपोषण के साथ-साथ उनकी गरीबी भी गहरी पैठ जमाई हुई है.
सरकारी कार्यक्रम और पहल केवल अब तक सीमित ही हैं. साथ ही आम चुनाव नजदीक होने के कारण, भारत के सबसे गरीब लोगों के बच निकलने की उम्मीद बहुत कम है. गया में 19 अप्रैल को विधानसभा चुनाव के लिए वोट पड़ने हैं. यहां के लोगों ने द मूकनायक को बताया कि कैसे सरकारी मदद उन्हें पीछे छोड़ गई है.
‘हर दिन हम अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं’
रंजय अपने आठ भाई-बहनों- दो भाइ और छह बहनों, में से स्नातक की डिग्री पाने वाले पहले व्यक्ति हैं. उनके पिता बिहार के हजारों-लाखों दलितों और महादलितों की तरह एक भूमिहीन मजदूर हैं. वह खेतिहर व भवन निर्माण मजदूर के रूप में आजीविका चलाते हैं.
दक्षिण बिहार में खेतिहर मजदूरों को लेन-देन प्रणाली के हिसाब से भुगतान किया जाता है. उन्हें पूरे दिन के काम के लिए पांच किलो खाद्यान्न (मौसम के आधार पर गेहूं या धान) मिलता है. मजदूरों ने बताया कि अगर उन्हें इसके बदले पैसे चाहिए हों तो उन्हें प्रतिदिन 150-200 रुपये की मामूली रकम दी जाती है. गौरतलब है कि अकुशल कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी 395 रुपये प्रतिदिन तय की गई है. निर्माण स्थलों पर दिहाड़ी मजदूरों की मांग और उपलब्धता के आधार पर उन्हें प्रतिदिन 200-300 रुपये का भुगतान किया जाता है.
आर्थिक संकट से परेशान और शिक्षा के लाभों से बेपरवाह, रंजय के पिता ने अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा. अपने भाई-बहनों में तीसरे रंजय इसके अपवाद रहे. उनकी पढ़ाई में रुचि थी और उन्होंने इसे छोड़ने से इनकार कर दिया. उन्होंने स्थानीय हाई स्कूल में 10वीं कक्षा शानदार अंकों से उत्तीर्ण की. फिर 12वीं और तत्पश्चात भूगोल में बीए (ऑनर्स) किया.
2010 में जब रंजय सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे थे, तब उनके पिता बूढ़े थे, एक भाई मानसिक रूप से विकलांग थे और दूसरे दिहाड़ी मजदूर के रूप में अपना गुजारा करते थे. तभी रंजय को कम से कम 50 महादलित परिवारों वाले गांवों में बिहार सरकार द्वारा नियुक्त टोला सेवक के रूप में काम करने का अवसर मिला. राज्य सरकार के संविदा कर्मचारियों के रूप में उन्हें मासिक 27,000 रुपये का निश्चित पारिश्रमिक मिलता है.
रंजय ने बिना झिझके इस मौके को दोनों हाथों से लपक लिया. लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है.
गांव के प्राथमिक विद्यालय में लगभग 58 दाखिल छात्रों के लिए तीन शिक्षक लगे हैं - लेकिन सभी छात्रों और शिक्षकों की उपस्थिति दुर्लभ है. जब हमने अप्रैल में स्कूल का दौरा किया तो केवल एक शिक्षक ड्यूटी पर थे, लेकिन वह भी नए शैक्षणिक वर्ष के लिए कोर्स की किताबें इकट्ठा करने के लिए उस समय बाहर गए थे. उनकी अनुपस्थिति में रंजय को ही छात्रों को पढ़ाना पड़ता.
इसके अलावा, सामाजिक रूप से बहिष्कृत समुदायों से आने वाले सभी माता-पिताओं के साथ, उनका बातचीत करना कठिन होता है.
रंजय कहते हैं, “गरीबी और अज्ञानता की वजह से ये मां-बाप अपने बच्चों को छोटी-मोटी नौकरियों में लगाने के लिए मजबूर हैं, ताकि वे परिवार की आय में योगदान दे सकें. उन्हें समझाना इतना आसान नहीं है. कभी-कभी वे अपने बच्चों को तब स्कूल भेजते हैं, जब कोई ऑफ सीजन होता है और कोई काम नहीं होता. जब उन्हें नौकरी मिल जाती है, तो वे अपने बच्चों को भी साथ ले जाते हैं ताकि उनकी कमाई ज़्यादा हो.”
मिसाल के तौर पर, बारह वर्षीय नीतू एक ऐसे परिवार से है जो गंभीर वित्तीय संकट में है. फिर भी उसने अपनी स्कूली शिक्षा जारी रखी क्योंकि उसके पिता उसके लिए ऐसा चाहते हैं.
कक्षा 7 की छात्रा नीतू का कहना है कि 2023-24 शैक्षणिक वर्ष की अर्ध-वार्षिक परीक्षाओं में, उसके ग्रेड में डी से सी, यहां तक कि एक पेपर में बी ग्रेड तक का सुधार हुआ है. वह अपने स्कूल जाने को सुनिश्चित करने के लिए अपने टोला सेवक को श्रेय देती हैं. हमें अपनी मार्कशीट दिखाते हुए वह मुस्कुराती हैं और शर्माते हुए कहती हैं कि वह "कमपूटर" - कंप्यूटर - की पढ़ाई करना चाहती हैं और अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ बनना चाहती हैं.
लेकिन जब नीतू अपने परिवार के संघर्ष के बारे में बात करती हैं, तो उनकी मुस्कान मुरझा जाती है. उनके माता-पिता, झम्मन मांझी और पनवा देवी दिहाड़ी मजदूर हैं. एक टोले में रहते हुए उनके पास कोई जमीन नहीं है. उनके पास तो उस प्लॉट का मालिकाना हक भी नहीं है, जिस पर दशकों से उनका आधा-कच्चा, आधा-पक्का जर्जर घर खड़ा है. हर दोपहर नीतू का दोपहर का खाना, पानी वाली उबली दाल के साथ चावल होता है. सब्जियां या मांस एक विलासिता है.
झम्मन मांझी का कहना है कि वह चाहते हैं कि उनकी बेटी जितना चाहे उतना पढ़े.
वह कहते हैं, “हम मजदूर हैं, लेकिन महीने में 12-13 दिन से ज्यादा काम नहीं मिलता. मजदूरी इतनी कम है कि गुजारा करना बेहद मुश्किल है. हम किसी तरह जिन्दा रह पा रहे हैं. हर दिन हम अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं. इन सारी चुनौतियों के बावजूद, मैं यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करूंगा कि मेरी बेटी पढ़ाई करे और अपना लक्ष्य हासिल करे.''
गया के बांके बाजार के गुलियाडीह गांव में, जयेशा देवी कहती हैं कि उन्हें केवल बुआई और कटाई के दिनों में ही किसानी का काम मिलता है, "जो 10 दिनों से अधिक नहीं चलता है".
वह कहती हैं, ''दिहाड़ी के नाम पर हमें एक समय के भोजन के साथ पांच किलो गेहूं या धान मिलता है. अगर हम पैसे की मांग करते हैं तो हमें प्रतिदिन 150 रुपये से ज़्यादा का भुगतान नहीं किया जाता है. एक बार काम खत्म हो जाने के बाद, हम ईंट के भट्ठों पर वापस जाते हैं. जहां हमें 1,000 ईंटें ले जाने और उन्हें भट्ठी में व्यवस्थित करने के लिए 50-60 रुपये दिए जाते हैं. औसतन, हममें से हर व्यक्ति रोज़ाना 150 रुपये कमाने के लिए कम से कम 3,000 ईंटों को इधर से उधर ले जाने का काम करता है.”
सरकारी मदद - या इसकी कमी
लेकिन सरकारी मदद का क्या?
झम्मन मांझी सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हवाला देते हुए कहते हैं कि उन्हें मिलने वाली ‘एकमात्र सहायता’ ‘मुफ्त राशन’ है.
जॉब कार्ड होने के बावजूद, नीतू के माता-पिता को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) अधिनियम के तहत काम नहीं मिलता है. उनका कहना है कि ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके काम की जगह जेसीबी ने ले ली है. आवास के सवाल पर झम्मन मांझी कहते हैं कि गांव में ज्यादातर लोगों के घर, कांग्रेस सरकार की इंदिरा आवास योजना के तहत दशकों पहले बने थे.
वे कहते हैं, "लेकिन ये अब ढहने की कगार पर हैं. हम अंदर नहीं सोते क्योंकि छत किसी भी दिन गिर सकती है."
हमने बिहार के पहले महादलित मुख्यमंत्री और अब गया से एनडीए उम्मीदवार जीतन राम मांझी पर उनकी राय पूछी.
झम्मन मांझी ने कहा, "वह महादलित हितों के समर्थक होने का दावा करते हैं लेकिन उन्होंने समुदाय के लिए कुछ नहीं किया है. उन्हें हमारे नेता की तुलना में उनके परिवार के सदस्यों का प्रतिनिधि कहना ज़्यादा उचित है. उन्होंने अपने परिवार को राजनीति में आगे बढ़ाया - उनके बेटे संतोष सुमन मंत्री हैं और उनके ससुर विधायक हैं. उनके दामाद भी विधायक हैं.”
बैंकों के लिए जीविका मित्र राज्य की एक बहुप्रचारित योजना है, जहां लेनदेन को सुविधाजनक बनाने एवं बैंकों और उधारकर्ताओं के बीच इंटरफेस के रूप में कार्य करने के लिए समुदाय के सदस्यों को बैंकों की शाखाओं पर तैनात किया जाता है. इन स्वयंसेवकों के माध्यम से, राज्य सरकार हाशिए पर रहने वाली महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए छोटी राशि उधार देती है. ये ऋण मात्र एक प्रतिशत की ब्याज दर पर दिए जाते हैं, जिन्हें 20 किश्तों में लौटाया जाता है.
योजना के स्वयंसेवकों में से एक या जीविका मित्र प्रतिभा कुमारी कहती हैं, “हममें से हर एक को एक या दो गांव सौंपे गए हैं, जहां हमें 10-15 महिलाओं का एक समूह बनाना है जो आजीविका कमाने के लिए कुछ करना चाहती हैं. समूह को शुरू में 1.5 लाख रुपये उधार लेने की मंजूरी दी गई है. वसूली के आधार पर सीमा को संशोधित किया जाता है. हम लोगों को उनकी ज़रूरत के हिसाब से अलग-अलग रकम का कर्ज देते हैं. हमारे जैसे जीविका मित्र ईएमआई इकट्ठा करने के लिए घर-घर जाते हैं.”
लेकिन ग्रामीणों और स्वयंसेवकों के अनुसार, कुछ मसले भी हैं.
जो महिलाएं ऋण लेती हैं, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे उस राशि का निवेश छोटे व्यवसाय स्थापित करने में करें. लेकिन अधिकांश उधार लेने वाले, घरों के निर्माण और मरम्मत, चिकित्सा बिल, विवाह और अपने पुरुष रिश्तेदारों को कमाने के लिए बड़े शहरों में भेजने जैसी बुनियादी चीजों पर खर्च करते हैं. स्वयंसेवकों का कहना है कि ऋण निर्माण पर खर्च किया जाता है, क्योंकि कई महिलाओं को "हर स्तर पर भ्रष्टाचार" के कारण सरकारी आवास योजनाओं के तहत "धन नहीं मिलता".
उदाहरण के लिए, यदि आवास योजना के तहत 1.5 लाख रुपये मंजूर किए जाते हैं, तो लाभार्थियों को कथित तौर पर लगभग 1.2 लाख रुपये मिलते हैं. भले ही राशि सीधे उनके बैंक खातों में स्थानांतरित की जाए. इसलिए, हालांकि प्रतिभा को लगता है कि जीविका मित्र योजना एक "बड़ा कदम" है. उन्हें चिंता है कि यह अपने वास्तविक उद्देश्य को पूरा नहीं करती है क्योंकि क़र्ज़ का इस्तेमाल तत्काल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता है.
जहां तक सरकारी स्कूलों का सवाल है, जॉन ड्रेज़ द्वारा निर्देशित जन जागरण शक्ति संगठन द्वारा उत्तरी बिहार में 2023 के एक सर्वेक्षण में "स्कूली शिक्षा के न्यूनतम मानदंडों को सुनिश्चित करने में गंभीर विफलता" का पता चला.
प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में उपस्थिति मुश्किल से 20 प्रतिशत थी. कोई भी विद्यालय शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत शर्तों को पूरा नहीं करता था और "शिक्षकों की भारी कमी" थी. सरकार की प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना के बावजूद बच्चों के पास पाठ्यपुस्तकें या वर्दी नहीं थी क्योंकि यह योजना "स्कूल में 75 प्रतिशत उपस्थिति पर सशर्त थी और इसके लिए आधार कार्ड की भी आवश्यकता थी".
रिपोर्ट में कहा गया, "अपर्याप्त संसाधन, अप्रभावी नीतियां और उदासीन कार्रवाई ऐसे मुद्दे हैं, जिनका इन स्कूलों को सामना करना पड़ता है और जिन्हें उनकी अन्योन्याश्रित विफलताओं के प्रतिबिंब के रूप में देखा जा सकता है."
हमने टिप्पणी के लिए राज्य शिक्षा विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव केके पाठक से संपर्क किया. उन्होंने आदर्श आचार संहिता का हवाला देते हुए बोलने से इनकार कर दिया.
गया का राजनीतिक इतिहास
फल्गू नदी के तट पर स्थित गया के बारे में माना जाता है कि यहीं पर बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था. यहां प्राचीन महाबोधि मंदिर है. जिसे यूनेस्को ने हेरिटेज साइट के रूप में सूचीबद्ध किया है. हर साल हजारों तीर्थयात्री यहां आते हैं.
गया शहर में भगवा झंडे एक आम दृश्य हैं.गया शहर का उल्लेख रामायण में भी मिलता है, विष्णुपाद मंदिर में हर साल पितृपक्ष मेला भी आयोजित होता है.
चुनाव आयोग के अनुसार, गया लोकसभा क्षेत्र में 18.13 लाख से अधिक मतदाता हैं, जिनमें से 9.4 लाख पुरुष और बाकी महिलाएं हैं.
पिछले 56 वर्षों से यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र रही है. 1999 से इस सीट पर मांझी समुदाय के उम्मीदवारों का दबदबा रहा है - 1999 में भाजपा के रामजी मांझी, 2004 में राजद के राजेश कुमार मांझी, 2009 और 2014 में भाजपा के हरि मांझी और 2019 में जदयू के विजय मांझी यहां से जीते.
गया लोकसभा सीट बनाने वाले छह विधानसभा क्षेत्रों में से तीन-तीन पर एनडीए और महागठबंधन का कब्जा है. यही वजह है कि इस चुनाव में सबकी निगाहें गया पर हैं.
इस साल, एनडीए ने हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी को इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार राजद नेता और बोधगया से विधायक कुमार सर्वजीत के खिलाफ मैदान में उतारा है. जीतन राम ने 1991, 2014 और 2019 के आम चुनावों में गया से असफल चुनाव लड़ा है, जबकि भाजपा ने पांच बार यह सीट जीती है. दिलचस्प बात यह है कि जीतन राम अपनी पहली चुनावी लड़ाई में सर्वजीत के पिता से हार गए थे.
लेकिन हार के बावजूद 80 साल के जीतन राम के पास काफी राजनीतिक अनुभव है. वे इंजीनियरिंग के स्नातक हैं. उन्होंने 1980 में राजनीति में शामिल होने के लिए क्लर्क की नौकरी छोड़ दी थी. 2009 में वह लोक जनशक्ति पार्टी के टिकट पर बोधगया से विधायक बने. 2015 और 2020 में उन्होंने फिर से जीत हासिल की. जेडीयू-महागठबंधन सरकार में उन्होंने पर्यटन और फिर कृषि मंत्री के रूप में कार्य किया. फिर नीतीश कुमार ने उन्हें 2014 में मुख्यमंत्री बनाया. इस निर्णय को कुमार ने बाद में एक "गलती" बताया.
लेकिन जीतन राम के पास खुद जीतने पर गया के लिए बड़ी योजनाएं हैं.
उन्होंने हमारी टीम को बताया, ''शहर विकास के सूचकांकों में पिछड़ा हुआ है. मैं इस मुद्दे को संसद में उठाने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं. अगर जिम्मेदारी दी गई तो मैं इसे वैसे ही विकसित करूंगा जैसे विकास किया जाना चाहिए था.”
वे विकास के लिए अपना रोडमैप खींचते हैं - फल्गू नदी को गंगा और अन्य नदियों से जोड़ना, पानी की कमी से जूझ रहे दक्षिण बिहार को सिंचित करने के लिए नहरों का एक नेटवर्क स्थापित करना.
हमने उनसे एससी समुदाय की साक्षरता दर के बारे में पूछा, जो राज्य में 80 प्रतिशत के मुकाबले बमुश्किल 30 प्रतिशत है. महादलितों के लिए तो यह और भी कम है, लगभग 15 प्रतिशत - जबकि मुसहरों के लिए यह सात प्रतिशत है.
जवाब में जीतन राम डॉ. बीआर अंबेडकर का जिक्र करते हैं, जिन्होंने सभी जाति, समुदाय और धर्म के बच्चों के लिए एक समान स्कूली शिक्षा प्रणाली की वकालत की थी.
वह कहते हैं, “70 साल से अधिक समय बीत गया लेकिन कोई भी सिस्टम के बारे में सोच भी नहीं सका. परिणामस्वरूप, 'संपन्न वर्गों' ने उत्कृष्टता हासिल की है और अधिक समृद्ध हो गए हैं. वंचितों- जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से वंचित हैं- को सबसे अधिक हाशिये पर रहने का सामना करना पड़ता है. आज, सामाजिक रूप से बहिष्कृत दलित परिवारों से संबंधित माता-पिता अपने बच्चों को या तो घरेलू श्रमिकों के रूप में, या निर्माण स्थलों पर काम करने के लिए बड़े शहरों में भेजते हैं.”
साथ में वे यह भी कहते हैं कि ये फैसले "लालच" या "प्रलोभन" की वजह से नहीं लिए जाते. “वे इसे अपनी पसंद से नहीं कर रहे हैं. यह उनकी मजबूरी है. गरीब लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे उनकी आर्थिक मदद करें... यह वास्तव में एक आर्थिक त्रासदी है. वे अपने बच्चों को इस उम्मीद से नौकरों के रूप में काम करने के लिए भेजते हैं कि उन्हें दिन में कम से कम दो बार खाना मिलेगा और इससे उनका बोझ कम हो जाएगा.”
पूर्व मुख्यमंत्री का कहना है कि उनका स्कूली जीवन संघर्ष से भरा रहा. “मैंने घरेलू नौकर के रूप में काम किया लेकिन मेरा पढ़ाई करने का दृढ़ संकल्प था. हमारे घर में तीन वक्त का खाना नहीं होता था. वित्तीय अड़चनों के कारण मैं कक्षाओं में नियमित रूप से हाज़िर नहीं रह पाता था. लेकिन मेरे पिता यह सुनिश्चित करने में कामयाब रहे कि मैं पढ़ाई न छोड़ूं. मैंने किसी तरह सफलतापूर्वक स्कूली शिक्षा पूरी की और कॉलेज में प्रवेश लिया, जहां मैंने अच्छी पढ़ाई की और इस पद तक पहुंचा.”
जीतन राम ने सत्ता में बैठे लोगों पर बिहार में बेहतर सरकारी स्कूलों की पर्याप्त देखभाल नहीं करने का आरोप लगाया.
वह कहते हैं, “हाल ये है कि सरकारी शिक्षक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं. यदि सरकार अपनी स्कूली शिक्षा प्रणाली में सुधार करने के लिए गंभीर है, तो उसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार तुरंत कानून बनाना चाहिए. जिसने उत्तर प्रदेश सरकार से सरकारी कर्मचारियों - चाहे नौकरशाह हों उच्च पदस्थ अधिकारी या चपरासी - को अपने बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों में भेजने वाला कानून बनाने को कहा था. तभी बदलाव पर ध्यान दिया जाएगा और इससे हाशिये पर पड़े लोगों को मदद मिलेगी.”
लेकिन क्या एनडीए ही केंद्र और राज्य, दोनों जगह सत्ता में नहीं है? उसने इस दिशा में कोई कदम क्यों नहीं उठाया? आश्चर्य की बात है कि जीतन राम इस पर कुछ नहीं बोलते हैं.
वह कहते हैं, ''आप कह सकते हैं कि यह सरकार ही है, जो इस खराब स्थिति के लिए जिम्मेदार है. लोकतंत्र में सभी को समान अवसर मिलना चाहिए. यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो इसे कौन सुनिश्चित करेगा? सरकार ही करेगी. चूंकि लोग अशिक्षित हैं, इसलिए उनके वोट अन्य तरीकों का इस्तेमाल करके सुरक्षित किए जाते हैं. इसलिए कुल मिलाकर, योग्य एवं अच्छे जन प्रतिनिधि नहीं चुने जाते. इससे लोगों के उत्थान में बाधा खड़ी होती है.”
महत्वपूर्ण बात है कि एनडीए उम्मीदवार का कहना है कि वह भारत की वर्तमान आरक्षण नीति का विरोध करते हैं. वह आगे कहते हैं, “लेकिन जब मैं समान अवसर की बात करता हूं, तो उसी समय विशेषाधिकारों और संसाधनों में एकरूपता होनी चाहिए. इसलिए परिस्थिति आरक्षण की मांग करती है."
उन्होंने "दलित वर्गों" को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए अंबेडकर और गांधी के बीच पूना समझौते का उल्लेख किया. उनका कहना है कि अंबेडकर की जीवनी से पता चलता है कि समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किए जाने के बाद से वह रो रहे थे.
जीतन राम कहते हैं, ''उनके आंसू और चिंताएं कितनी सच्ची थीं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज संसद में हमारे 84 सांसद हैं, लेकिन कोई भी समान शिक्षा प्रणाली या दोहरे मताधिकार के बारे में बात नहीं करता है.'' उनका कहना है कि अंबेडकर ने दोहरे मताधिकार की मांग की थी, लेकिन गांधीजी ने इसका पुरजोर विरोध किया था.
उनका यह भी कहना है कि यदि कोई मुखर एससी नेता राज्य विधानसभा या संसद के लिए चुना जाता है, तो उन्हें अक्सर एक या दो कार्यकाल के बाद टिकट देने से इनकार कर दिया जाता है. “यह संयोग है कि मैं आठ बार विधायक के रूप में चुना गया. और इसे सुनिश्चित करने के लिए, मुझे लुका-छिपी का खेल खेलना पड़ा. अगर मैं आज जितना मुखर होता, तो मुझे शारीरिक या राजनीतिक रूप से खत्म कर दिया गया होता.”
कोई अस्पताल नहीं जाता, कुपोषण
जनवरी में 37 साल की उर्मिला मांझी दादी बनीं. उस शाम, उन्होंने एक और उपलब्धि हासिल की - 20 साल में अपने घर के अंदर, किसी नर्स या डॉक्टर की सहायता के बगैर सात बच्चों को जन्म देने के बाद, वह पहली बार अस्पताल गईं.
इमामगंज के पास भोगटौरी गांव की रहने वाली उर्मिला की बड़ी बेटी को घर पर ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई. गया जिला अस्पताल जाने के लिए उर्मिला ने एक तीन पहिया वाहन किराये पर लिया. वहां पहुंचने में मां और बेटी को दो घंटे लग गए, जिसके बाद उर्मिला की बेटी ने एक बच्चे को जन्म दिया.
उसने टेम्पो ट्रैवलर किराये पर लेने के बजाय एंबुलेंस क्यों नहीं बुलाई? उर्मिला का उत्तर सरल है: "चूंकि हमारे गांव में कोई भी अस्पताल नहीं जाता है, इसलिए हम एम्बुलेंस के अस्तित्व से अनजान हैं."
भोगटौरी लगभग 300-400 मुसहरों का घर है, जो 40 से अधिक मिट्टी और बांस की झोपड़ियों में रहते हैं. उर्मिला इस बात से बेपरवाह हैं कि उन्होंने खुद, घर पर अकेले सात बच्चों को "बिना किसी समस्या के" जन्म दिया.
उनकी देखादेखी उसके पति के भाई की पत्नी ने अपनी गर्भनाल काट ली थी. जब उनसे पूछा गया कि इसे काटने के लिए क्या इस्तेमाल किया गया था, तो उन्हें पक्का नहीं था, हालांकि उन्हें याद है कि गांव की 10 या 12 महिलाएं चर्चा कर रही थीं कि उन्हें रसोई के चाकू को कैसे धोना चाहिए. उर्मिला आगे कहती हैं, ''यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसके बारे में हम सोचते भी हैं.''
भोगटौरी में अधिकांश महिलाएं घर पर ही बच्चे को जन्म देती हैं, गंभीर जटिलता होने पर ही अस्पताल जाती हैं. इन इलाकों में कोई कुशल दाइयां भी नहीं हैं. महिलाएं, जिनमें से कई के चार या पांच बच्चे हैं, ठीक से नहीं जानतीं कि आस-पास कोई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है या नहीं या वहां बच्चे की डिलीवरी भी होती है या नहीं.
हमारी टीम ने गया में जिन गांवों का दौरा किया, उनमें से किसी में भी सरकार द्वारा संचालित औषधालय या उप-केंद्र नहीं था. हालांकि, जिला स्वास्थ्य कार्य योजना में प्रत्येक ब्लॉक के लिए 10 उप-केंद्र अनिवार्य हैं, कुछ ब्लॉकों में अधिकतम दो या तीन हैं. कइयों में एक भी नहीं है.
इसी तरह, सरकार की एकीकृत बाल विकास सेवा योजना कहती है कि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताएं, आंगनबाड़ियों या किराने की दुकानों से गर्म/पके हुए भोजन के रूप में पोषक तत्वों की खुराक पाने की हकदार हैं. उन्हें गर्भावस्था के दौरान 180 दिनों तक आयरन, फोलिक एसिड और कैल्शियम की खुराक भी दी जानी है.
उर्मिला कहती हैं कि उन्हें आंगनवाड़ी से कैल्शियम और आयरन की खुराक मिलती थी, लेकिन उन्होंने कभी मेडिकल चेकअप नहीं कराया. उन्हें सरकार की ओर से महीने में एक बार "अंडे और कुछ फल" भी मिले. उसने आईसीडीएस कार्यक्रम के बारे में कभी नहीं सुना. उर्मिला यह भी कहती हैं कि उन्होंने अपनी पूरी गर्भावस्था के दौरान प्रसव के दिन तक हर दिन काम किया. वह प्रत्येक जन्म के 10 दिन बाद काम पर लौट आती थीं.
आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ता अपने संबंधित केंद्रों पर पहचान और पंजीकरण नहीं कराने के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहराती हैं. एक आशा कार्यकर्ता ने बताया कि मुसहर महिलाएं व्यक्तिगत स्वच्छता को प्राथमिकता नहीं देती हैं.
वह कहती हैं, ''लोगों को अस्पताल ले जाना वाकई मुश्किल है',' वह यह भी मानती हैं कि जागरूकता बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा बहुत कम प्रयास किए गए हैं.
उर्मिला इस बात से सहमत हैं कि ऐसी धारणा है कि उनके लोग अपने तौर-तरीकों पर अड़े हुए हैं. इसलिए मुसहर रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर चर्चा करते समय वह अतिरिक्त सतर्क रहती हैं. उसे पोषण पर चर्चा करना भी पसंद नहीं है. जब उनसे विशेष रूप से उनके समुदाय के बारे में कायम रूढ़िवादिता के बारे में पूछा गया तो उन्होंने केवल इतना कहा, "हम कृंतक (चूहे आदि) नहीं खाते हैं."
आशा कार्यकर्ता इससे सहमत हैं. वह बताती हैं कि मुसहर भोजन में आम तौर पर चावल और आलू शामिल होते हैं. हरी सब्जियां नहीं खाई जातीं यही कारण है कि यहां की कई महिलाएं और बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं. “रात को आलू के साथ रोटियां मिलेंगी. हम अंडे, दूध और हरी सब्जियां खरीदने में असमर्थ हैं. फल तो और भी अधिक दुर्लभ हैं.”
न ज़मीन, न घर
अप्रैल की शुरुआत में, बोधगया के बकरौर गांव में लगभग 20 झोपड़ियां जलकर खाक हो गईं. ये झोपड़ियां एक साल से भी कम समय पहले भूमिहीन अनुसूचित जाति परिवारों के लिए एक नदी के पास सरकारी भूमि पर बनाई गई थीं. हालांकि, जिला प्रशासन ने प्रति परिवार 12,000 रुपये का भुगतान किया लेकिन उन्हें रहने के लिए जमीन आवंटित करने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.
यह स्पष्ट नहीं है कि आग कैसे लगी, लेकिन परिवारों ने अपनी सारी संपत्ति खो दी. अब वे सरकार पर ही आरोप लगाते हैं कि वह उन्हें सरकारी जमीन से "भगाने" की कोशिश कर रही है.
62 वर्षीय फुलवा देवी का परिवार उन परिवारों में से एक है, जिन्होंने अपना सब कुछ खो दिया. उनके छह बेटे हैं, जो जब कभी काम मिल जाता है तब दिहाड़ी मजदूर के रूप में मामूली रकम कमाते हैं.
वह सरकारी स्वामित्व वाली भूमि का जिक्र करते हुए पूछती हैं, "अगर हम गैर-मजरुआ जमीन पर नहीं बसेंगे तो कहां जाएंगे? जब चुनाव आते हैं तो राजनीतिक नेता हमारे वोट जीतने के लिए बड़े-बड़े दावे करते हैं. लेकिन बाद में कुछ नहीं होता.”
अपना घर खोने के बाद, फुलवा देवी कहती हैं कि वह बोधगया के राजद विधायक कुमार सर्वजीत से कई बार मिलीं, लेकिन उन्होंने "कभी हमारी बात नहीं सुनी".
वह कहती हैं, “इसी तरह, जीतन राम मांझी ने भी हमारे कल्याण के लिए कुछ नहीं किया.”
वह ये भी बताती हैं कि 2015 में बिहार सरकार ने भूमिहीन लोगों को तीन डेसीमल भूमि प्रदान करने का वादा किया था, यदि किसी ख़ास इलाके में गैर-मजरुआ भूमि उपलब्ध नहीं हो, एक डेसीमल एक एकड़ का सौवां हिस्सा होता है. ख़ास बात ये है कि 2013 में राज्य सरकार ने कहा था कि वह महादलित परिवारों को घर बनाने के लिए तीन डेसीमल जमीन देगी, जिसे बाद में बढ़ाकर पांच डेसीमल कर दिया गया. सरकार ने राज्य विधानसभा को बताया कि 96 प्रतिशत पात्र परिवारों को पहले ही उनकी जमीन मिल चुकी है.
फुलवा देवी पूछती हैं, “शब्दों को वास्तविकता में बदलना अभी बाकी है. जब हम सरकारी जमीन पर दावा करते हैं तो या तो हमें भगा दिया जाता है या फिर हमारे घरों में आग लगा दी जाती है. क्या करें? कहां जाएंगे?"
प्रेरणा कुमारी भी आग में अपना घर खो चुकी हैं. वह अपने ससुराल के दो कमरे वाले पैतृक घर में परिवार के आठ सदस्यों को रखने में असमर्थ थी. इसीलिए उन्होंने यहां घर बनाया था लेकिन वो भी चला गया.
वह गुस्से में कहती हैं, “रहने के लिए घर मिलना संवैधानिक गारंटी है. सरकार हमें रहने के लिए जमीन उपलब्ध कराने के लिए कर्तव्य-बाध्य है. सरकार ने हमें निराश कर दिया है. हमारे पास उसकी ज़मीन पर दावा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. लेकिन अधिकारी, जब वे हमें भगाने में विफल हो जाते हैं, तो हमारी बस्तियों को जलाने के लिए प्रायोजित एजेंटों को नियुक्त करते हैं. लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि आगामी चुनावों में उन्हें सबक सिखाया जाएगा.''
गया में क्रोध और रोष व्याप्त है. गया शहर के बाहरी इलाके में हमारी मुलाकात शहरी गांव बंगाली बिगहा की रहने वाली कमला देवी से होती है. सीवेज टैंक के पास जमीन पर बैठकर वह कहती हैं कि कोई भी राजनीतिक नेता उनके कल्याण के बारे में "वास्तव में चिंतित" नहीं है.
उन्होंने कहा, ''वे जो भी कहते हैं वह महज दिखावा साबित होता है. अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब मारे जा रहे हैं. हमारे पास काम नहीं है. महंगाई के इस दौर में हम जो भी कमाते हैं वह पर्याप्त नहीं है. जमीन के उस छोटे से टुकड़े को छोड़कर जहां हम पीढ़ियों से रह रहे हैं, हमारे पास खेती के लिए एक इंच भी जमीन नहीं है. यहां तक कि हमारे कब्जे में मौजूद आवास भूमि भी कानूनी रूप से हमारी नहीं है, क्योंकि हमारे पास पर्चा नहीं है.”
पर्चे का तात्पर्य भूमि के मालिकाना कागज़ात से है. कमला देवी कहती हैं, ''अगर सरकार चाहे तो हमें किसी भी दिन बेदखल किया जा सकता है.''
उनका अपना एक कमरे का घर दशकों पहले इंदिरा आवास योजना के तहत बनाया गया था. “लेकिन यह अब ढह रहा है. इसे मरम्मत की आवश्यकता है, जिसका खर्च हम उठाने में असमर्थ हैं.” वह ये भी कहती हैं कि वे अपने घरों का विस्तार नहीं कर सकते, क्योंकि जमीन कम है - एकमात्र विकल्प इसे बहुमंजिला बनाना है जो बहुत महंगा है, ये देखते हुए कि वे मुश्किल से दो जून की रोटी का खर्च उठा पाते हैं.
वह कहती हैं, “मेरे पांच बच्चे हैं. पहले दो ने 10वीं कक्षा पास की है, लेकिन वे खेती की भूमि पर काम कर रहे हैं. इतनी कम कमाई में हम उन्हें कैसे पढ़ा देंगे? आगे की शिक्षा हासिल करने के बाद भी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उन्हें सरकारी नौकरी मिलेगी. इसलिए उन्होंने अपने पिता का साथ देने के लिए खेतों और अन्य जगहों पर काम करना शुरू कर दिया है.”
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