Get all your news in one place.
100’s of premium titles.
One app.
Start reading
Newslaundry
Newslaundry
Comment
राजशेखर त्रिपाठी

हैलो.. आई एम नेहरू, जवाहर लाल नेहरू...मेड बाय गांधी!

पंडित जवाहर लाल नेहरू एक दशक से संघ परिवार की सियासी खराद पर हैं. होते तो आज 135 साल के होते, अब नहीं हैं तो समझाया जा रहा है कि उन्होंने ‘वी द पीपल ऑफ इंडिया’ का जो बीजमंत्र अंबेडकर के साथ मिल कर पढ़ा उसी में ध्वन्यात्मक दोष है. हमें समझाया जा रहा है कि जिस गांधी ने उन्हें अपना सियासी उत्तराधिकारी बनाया उनके ‘राम-राज’ का ‘काम-काज’ तो नरेंद्र भाई मोदी पूरा कर रहे हैं. नेहरू ने तो सोमनाथ मंदिर के उद्धार को भी हिन्दू पुनरुत्थानवाद के नज़रिए से देखा, मोदी युग में राम मंदिर निर्माण ही सरकार का सबसे प्रमुख सियासी एजेंडा हो गया. जिसे देख सुन कर हमारा हिंदू तनमन गदगद है. न मालूम कि हिंदू जीवन कितना संतुष्ट है– संतौं घर में झगरा भारी! 

ख़ैर ये तो मौजूदा सूरत-ए-हाल का मामूली अहवाल है. तारीख़ के औराक़ उलट कर देखिए तो नेहरू को किस जाविए से- किस एंगल से देखा जाए ये समझना ही मुश्किल आन पड़ता है. कांग्रेस नेहरू ने नहीं बनायी थी, उनके बाप ने भी नहीं बनायी थी, बनायी तो गांधी ने भी नहीं थी, हां नेहरू का कांग्रेस से सीधा एनकाउंटर हुआ था. 

कैंब्रिज से वापसी के तकरीबन 15 साल बाद 1927 की मद्रास कांग्रेस में नेहरू बाकायदा सेंटर स्टेज पर एंट्री लेते हैं. अंग्रेजों की बनाई कांग्रेस तब तक इतनी ही मजबूत हुई थी कि वो ब्रिटिश साम्राज्य से भारतीय प्रजा के लिए 'डोमीनियन स्टेटस' की डिमांड कर ले. डोमिनियन स्टेटस- यानि हिन्दुस्तानी प्रजा को अपना प्रशासन स्वयं संभालने का अधिकार. राजा रहें फ़िरंगी, मलका विक्टोरिया. कमाल ये कि नेहरू ने इस ‘डोमीनियन स्टेटस’ के बर-ख़िलाफ़ बड़ी मज़बूती से ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ का प्रस्ताव रख दिया. मज़े की बात ये कि नेहरू के तर्क इतने दमदार थे कि प्रस्ताव पारित भी हो गया. मगर ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ की मांग का ये प्रस्ताव पारित होने के बावजूद दरी के नीचे दबा दिया गया. गांधी ने इसे यूनिवर्सिटी के छात्रों की ‘ब्वायज़ डिबेट’ करार दे दिया. मतलब ‘छात्र संघी भाषण’.

यहां बात नेहरू की हो रही है, लेकिन गांधी का ज़िक्र किए बग़ैर वो पूरी नहीं होती. गांधी ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव दरकिनार कर दिया- ये सुनने में आपको अजीब और कायराना लग सकता है. मगर गांधी ने ये पहली बार नहीं किया था. आप जिसे आज़ादी कहते हैं उसका दूसरा नाम ‘नैशनल मूवमेंट’ भी है- ये मत भूलिए. गांधी कभी भी ‘इमैच्योर इंडिपेंडेंस’ के पक्ष में नहीं थे. देश और कांग्रेस तब तक आज़ादी के लिए तैयार नहीं थे. गांधी को ये बखूबी पता था.

चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया. बहुत से लोग उनके इस फैसले से हतप्रभ थे. बहुत से साथ भी छोड़ गए. ख़िलाफ़त मूवमेंट वाले अली ब्रदर्स को ही ले लीजिए. जवाहर लाल नेहरू भी उन लोगों में थे जिनको बापू के इस फैसले का औचित्य नहीं समझ आया. मगर गांधी ने आंदोलन वापस लिया, क्योंकि वो जानते थे कि चौरी-चौरा का नाभीकीय विखंडन किस तरह की अनगढ़- सर्वसत्तावादी आज़ादी की ओर बढ़ेगा. ये सिर्फ हिंसा-अहिंसा का मामला नहीं था. ज़रा सोचिए कि प्रिंसली स्टेट्स खासतौर पर– राजस्थानी राजपूताना, हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर जो 1947 के बाद बमुश्किल काबू में आयीं, तो 30 के दशक में वो कैसे रिएक्ट करतीं. बस कल्पना करिए. 

खैर पंडित नेहरू ने गांधी के ऐतराज-ओ-इनकार के बाद भी अपनी पूर्ण स्वराज वाली लाइन नहीं छोड़ी. गांधी से तमाम मसलों पर उनके मतभेद थे, लेकिन बावजूद इसके गांधी नेहरू को गढ़ रहे थे. 1929 में गांधी ने जवाहर को लाहौर अधिवेशन में अध्यक्ष बनवाया और कहते हैं कि मोतीलाल नेहरू बेटे के कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने पर रावी के किनारे मस्त होकर नाचे. 

मोतीलाल नेहरू दूरंदेश थे. उन्हें आने वाले दिनों में कांग्रेस का भी भविष्य दिख रहा था और उसमें बेटे का भविष्य भी. इस कांग्रेस में वो जूनियर नेहरू की भूमिका तय कर देना चाहते थे. ये उनका भविष्य दर्शन ही था कि वो खुद अपना अच्छा भला वकालत का करियर छोड़ कर कांग्रेस में सक्रिय हो गए थे. (क्या कहें, ये भी कहना ही पड़ता है कि मोतीलाल जी जिन्ना के साथ बिलियर्ड खेलते थे, हेग की स्कॉच और हवाना का सिगार पीते थे, जो इंडिया में तब भी मयस्सर था, उनके कपड़े पेरिस में नहीं मगर इलाहाबाद की पैरिस लॉन्ड्री में धुलते थे. मगर कांग्रेस में आकर वो धोती और सदरी पहनने लगे, दुपलिया कांग्रेसी टोपी लगाने लगे)

हालांकि, गांधी ने मोतीलाल नेहरू की वजह से उनके बेटे को तरजीह नहीं दी. गांधी ने नेहरू का पोटेंशियल पकड़ लिया था. उस उस्ताद की तरह जो शाग़िर्द की ग़लती के पीछे झांकती उसकी ख़ूबी जान लेता है. गांधी ने अपने रिस्क पर नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया. नेहरू को आगे बढ़ाने का गेम प्लान गांधी का था. 1929 के लाहौर अधिवेशन से जो असंतोष उपजा उसे गांधी ने यंग इंडिया में ये लिख कर दबा दिया कि जवाहर मेरे ‘एल्टर-इगो’ हैं मेरी ‘मिरर-इमेज’ हैं- यानि प्रतिछाया. 

जिन्हें आज भी ये बताया जाता है कि नेहरू जी पटेल की पहुंच को लांघ कर प्रधानमंत्री बनाए गए थे- उन्हें ये पता होना चाहिए कि गांधी के इस लेख ने 1929-30 में ही स्थिति एकदम साफ कर दी थी. देश ही नहीं दुनिया को पता था आजादी मिली तो भारत की बागडोर नेहरू के ही हाथ होगी. ‘यंग इंडिया’ अंग्रेजी में छपता था और अंबेडकर का मशहूर कोट है “गांधी जो दुनिया को बताना चाहते हैं वो अंग्रेजी में – ‘यंग इंडिया’ में लिखते हैं”.

आइए अब साम्यवादी, समाजवादी नेहरू से भी मिलिए. नेहरू ने 1935-36 में ऐलान कर दिया था- “मैं सोशलिस्ट हूं- कम्युनिस्ट हूं और इतिहास को देखने का मेरा नजरिया मार्क्सवादी है”. 

1935 में कमला नेहरू का यूरोप में निधन हुआ, 1935-36 के इस यूरोप प्रवास के दौरान नेहरू रजनी पाम दत्त और बेन ब्रैडले जैसे साम्यवादियों के संपर्क में आए और उनके भीतर का ‘पॉलिटिकल एक्टिविस्ट’ और ‘रैडिकल’ हो गया. इसे समझना है तो अवध का किसान आंदोलन और नेहरू की उसमें भागीदारी को पढ़िए-जानिए. रायबरेली–अमेठी-सुल्तानपुर- प्रतापगढ़ में गांधी नेहरू परिवार का पॉलिटिकल वेटेज क्यों है...क्या है..समझ में आएगा. तब नेहरू कांग्रेसी भी नहीं हुए थे.

खैर इतिहास ने फिर एक टर्न लिया. नेहरू यूरोप में थे और गांधी ने उन्हें कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के लिए आमंत्रित किया. “आओ और कांग्रेस के जहाज की कमान संभालो...अगर तुम अध्यक्ष बनते हो तो अपनी नीतियों और सिद्धांतों के साथ काम करने को स्वतंत्र रहोगे.”

जाहिर है जिस कांग्रेस में गांधी की ज़बान ही आखिरी कौल होती थी, वहां विरोध कौन करता. मगर साहब 1936 में नेहरू ने जो अध्यक्षीय भाषण पढ़ा उसने कांग्रेस के कारोबारी फंड-दाता ‘बॉम्बे-कैलकटा गैंग’ को हिला दिया. बॉम्बे प्रेसीडेंसी के 21 सेठों ने नेहरू के खिलाफ खुला खत लिखा/छपवाया. कांग्रेस की तथाकथित ‘राइट विंग’ या कहें तो ‘ओल्ड गार्ड्स’ में खलबली मच गयी. नेहरू का भाषण ‘ माई डियर कॉमरेड्स’ के संबोधन से शुरू हुआ था. संबोधन ही नहीं भाषण का ज्यादातर कंटेंट बोल्शेविक रूस की लाइन वाला था. 

इस भाषण के बाद सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, चक्रवर्ती राजाजी जैसों ने विरोध में धड़ाधड़ इस्तीफे रख दिए. नेहरू दबाव में आ गए तो गांधी ने सारे इस्तीफे वापस भी करवाए. बाद में परोक्षतः माना भी कि इसके पीछे वही थे. इसका एक बड़ा सबूत मारवाड़ी सेठ घनश्याम दास बिड़ला की गुजराती कारोबारी भालचंद हीराचंद को लिखी चिट्ठी है. बिड़ला ने लिखा- “नेहरू का विरोध करने की बजाए हमें महात्मा जी की टीम का हाथ मजबूत करना चाहिए. महात्मा जी ने अपना वादा निभाया, नेहरू को काबू करने के लिए इस्तीफों की जो इंजीनियरिंग थी वो महात्मा जी की ही थी.”

अब जो बिटवीन द लाइंस समझ में आता है कि गांधी ने नेहरू को खुला हाथ जरूर दिया, मगर पर्दे के पीछे लगाम अपने हाथ में रखी. 

नेशनल मूवमेंट की सियासी बिसात के सरकस ग़ज़ब हैं, गांधी दूर तक देखते रहे, नेहरू को गढ़ते रहे और हताश लोग कहते रहे- “बापू किसी के भी मुकाबले जवाहरलाल को ज्यादा प्रेम करते हैं.”

Newslaundry is a reader-supported, ad-free, independent news outlet based out of New Delhi. Support their journalism, here.

Sign up to read this article
Read news from 100’s of titles, curated specifically for you.
Already a member? Sign in here
Related Stories
Top stories on inkl right now
One subscription that gives you access to news from hundreds of sites
Already a member? Sign in here
Our Picks
Fourteen days free
Download the app
One app. One membership.
100+ trusted global sources.